रूहानियत इंसानियत के संगम से ही मानव कल्याण
निरंकारी सतगुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने दिया मानवता के नाम संदेश
मोहाली / चंडीगढ़ / पंचकूला/ प्रयागराज, 28 मार्च
( हरप्रीत सिंह जस्सोवाल ) संसार में इंसानियत और रूहानियत के संगम की नितान्त आवश्यक्ता है जब आत्मा, परमात्मा को जानकर अर्थात रूहान से जुड़कर रूहानी हो जाती है तो इंसानियत भी स्वाभाविक रूप से जीवन में आ जाती है। उक्त उदगार सतगुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने परेड ग्राउण्ड, प्रयागराज में आयोजित 44वें प्रादेशिक निरंकारी संत समागम के दिन लाखों की संख्या में उपस्थित श्रद्धालु भक्तों के मध्य मानवता के नाम संदेश देते हुये व्यक्त किये।
सतगुरू माता जी ने कहा कि युगों-युगों से भक्तों ने यही संदेश दिया है कि इंसानी तन में ही यह आत्मा अपने मूल स्वरूप को जान सकती है जिससे कि यह जन्मों जन्मों से बिछड़ी हुई है। संतों ने हमेशा आध्यात्मिकता को ही प्राथमिकता दी है। हमें अपनी भौतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुय ही अपने सारे कर्तव्यों को निभाना है क्योंकि भक्ति ग्रहस्थ में ही की जा सकती है, अपने सांसारिक दायित्यों को पूरा करते हुये हर पल की भक्ति करनी है। भक्तों ने हमेशा यही सिखाया है कि हमें अपने आचरण में प्रेम नम्रता विशालता आदि दिव्य गुणों को समाहित करना है और अहंकार को स्वयं से दूर रखना है। जीवन जीने का सार भक्ति है और भक्ति से जीवन जीना बहुत ही सहज हो जाता है।
निरंकारी मिशन का यही संदेश है कि जब परमात्मा से एकत्व हो जाता है तो सारे संसार में भिन्नता होने पर भी सभी से एकत्व हो जाता है। परमात्मा एक ही है ऐसा जान लिया तो इसकी बनाई रचना से स्वतः ही प्रेम हो जाता है और सभी के अंदर परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं। इस प्रकार का जीवन जो व्यक्ति जीता है उसका जीवन श्रेष्ठ जीवन होता है और दूसरों के लिये भी प्रेरणा का स्रोत बन जाता है।
निरंकारी संत समागम के द्वितीय दिन का शुभारम्भ समागम स्थल पर सतगुरू माता सुदीक्षा जी महाराज एवं निरंकारी राजपिता जी के स्वागत द्वारा हुआ और दिव्य युगल के आगमन पर समागम समिति के सदस्यों द्वारा फूलों का गुलदस्ता भेंट किया गया। फूलों से सजी हुई पालकी में विराजमान दिव्य जोड़ी की मुख्य मंच तक अगुवाई की गई। पालकी के दोनों ओर श्रद्धालु भक्तों ने भाव विभोर होकर जयघोष करके अपने सदगुरू का अभिनंदन किया।
सेवादल रैली में सम्मिलित हुये स्वयं सेवकों को पावन आशीर्वाद देते हुये सतगुरू माता जी ने फरमाया कि निस्वार्थ भाव से की गई सेवा ही वास्वविक सेवा कहलाती है। सेवा का कोई दायरा नहीं होता